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कर्णप्रयाग रहीं है दानवीर कर्ण की तपोभूमि

श्री कृष्ण ने शिला पर कर्ण का किया था अंतिम संस्कार

कर्णप्रयाग। महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ने वाले कुंती के पुत्र और सूर्य पुत्र कर्ण महाभारत के एक प्रतापी पात्र थे। महाभारत युद्ध में कर्ण के किस्से और कर्ण के शौर्य की गाथा अनादि काल से महाभारत के पन्नों में मिलती है। साहसी और प्रतापी पात्र कर्ण की कहानी बेहद रोमांचक है और यह खत्म होती है देवभूमि उत्तराखंड के द्वापर युग में स्कंद प्रयाग के नाम से जाने जाने वाले कर्णप्रयाग में आकर। द्वापर युग में स्कंद प्रयाग को कर्ण की मृत्यु के बाद कर्णप्रयाग के नाम से जाना गया। कर्णप्रयाग में सूर्य पुत्र कर्ण का एक मात्र मंदिर है और यहीं पर कर्णशिला भी मौजूद है।
उत्तराखंड के पांच प्रयागों में से एक कर्णप्रयाग दानवीर कर्ण की तपोभूमि रही है। कर्णप्रयाग में मौजूद कर्ण के मंदिर वाली जगह वही जगह है, जहां पर कर्ण ने भगवान सूर्य की उपासना की थी। मंदिर के बाहर मौजूद कर्णशिला वही शिला है, जिसके ऊपर भगवान श्री कृष्ण ने कर्ण की मृत्यु के बाद उसका अंतिम संस्कार किया था।
कर्ण ने महाभारत में कौरवों का साथ दिया था, लेकिन कर्ण भगवान सूर्य के वरदानी पुत्र थे और विष्णु भगवान के अनन्य भक्त थे। कर्ण को वरदान प्राप्त था, इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण ने उस समय के स्कंदप्रयाग की एक शिला पर कर्ण का अंतिम संस्कार किया और कर्ण का पिंडदान अलकनंदा से मिलने वाली पिंडर नदी में किया था। द्वापर युग की इस घटना के बाद से इस जगह को स्कंद प्रयाग से बदलकर कर्णप्रयाग कहा गया और आज भी पिंडर नदी और अलकनंदा नदी के इस संगम को बेहद पवित्र और मोक्ष का द्वार माना जाता है।
यहां पर जाकर मंदिर प्रांगण और वहां पर मौजूद पूरे परिसर का जायजा लिया। मंदिर के बाहरी गेट पर पर्यटन विभाग द्वारा मंदिर को लेकर एक शिला पट्ट लगाया गया है। हालांकि उस पर लिखी गई जानकारी मंदिर के पुजारी और स्थानीय लोगों की जानकारी से मेल नहीं खाती है। वहीं, मंदिर परिसर में पिछले कुछ सालों में काफी अच्छा काम हुआ है और इस ऐतिहासिक और पौराणिक जगह पर चारधाम यात्रा के दौरान तीर्थ यात्री और खासतौर से सनातन धर्म में अपनी आस्था रखने वाले लोगों की काफी आवाजाही होती है।
स्थानीय मनवीर सिंह मनराल ने बताया कि जब कर्ण का अंतिम संस्कार यहां पर किया गया था, तो उस समय यह जगह स्कंद प्रिया के नाम से जानी जाती थी। उन्होंने कहा कि आज इस पौराणिक जगह पर चारधाम यात्रा के दौरान कई सनातन धर्म के अनुयायी और स्टूडेंट आते हैं, लेकिन उस तरह से इस स्थल को विकसित नहीं किया गया है कि लोगों को ज्यादा बेहतर सुविधा और मनोरम दृश्य मिल पाए।

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